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मेरी बेटी

घर की घनघोर घटाओं में,
चंचल मस्त हवाओं में,
बहती गंगा की धाराओं में,
कैसे कलरव करती मेरी बेटी,
कितना मृदुल लगती मेरी बेटी।

चंचल है मन चितवत है मन,
रंगीली मौसम की उपवन है मन,
चहकती चिड़ियों की चंचनाहट है मन,
गिरती झरना की झनझनाहट है मेरी बेटी,
कितना मधुर बोलती मेरी बेटी।

बोलती जैसे कोयल बोले,
चलती जैसे हवा भी डोले,
हलचल  जैसे घर की हर कोने बोले,
घर की अलग पहचान मेरी बेटी,
कितना खुशी लगती मेरी बेटी।

नाचते  मोर की पंख जैसे,
खिलते फूलों की रंग जैसे,
बसंत के खिलती धूप जैसे
उगते सूरज की रोशनी है मेरी बेटी,
कितना सुंदर लगती मेरी बेटी।


                      ✍️प्रेम प्रकाश पाण्डेय
                            



Comments

  1. बहुत ही सुन्दर कविता लिखी है आपने

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